छत्तीसगढ़

बच्चा सीपीआर’ की नादानी ने बढ़ाई सरकार की मुश्किलें

सत्ता और संगठन असहज, पत्रकारों का बड़ा धड़ा लामबंद

रायपुर। छत्तीसगढ़ का जनसम्पर्क विभाग लगातार सुर्ख़ियों में है, और इसकी वजह है आयुक्त डॉ रवि मित्तल की कार्यशैली और निर्णयों को लेकर उठते सवाल। पिछले कई हफ़्तों से विवादों के बावजूद अब तक कोई ठोस कार्रवाई न होने से असंतोष और गहरा गया है। अब इसे लेकर प्रदेशभर के पत्रकारों का एक बड़ा धड़ा खुलकर लामबंद होने लगा है। राजनीतिक गलियारों में तंज कसा जा रहा है कि ‘बच्चा सीपीआर की नादानी’ सत्ता और संगठन दोनों को असहज स्थिति में ला रही है।

जनसम्पर्क विभाग में उठे सवाल अब केवल मीडिया और सरकार के बीच का विवाद नहीं रहे। यह लोकतंत्र और जनता के विश्वास का मुद्दा बन चुका है। ‘बच्चा सीपीआर की नादानी’ अब सीधे सत्ता और संगठन के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही है। पत्रकारों का बड़ा धड़ा जिस तरह से लामबंद हो रहा है, उससे साफ है कि आने वाले दिनों में यह टकराव और तीखा होगा।

बढ़ती नाराज़गी, बिगड़ता माहौल

पत्रकारों का आरोप है कि विभाग निष्पक्षता और पारदर्शिता के बुनियादी सिद्धांतों से भटक चुका है। छोटे-मंझोले अख़बारों और पोर्टलों की अनदेखी, चुनिंदा संस्थानों को फ़ायदा और संवाद की जगह मनमानी – यही अब पूरे विवाद का केंद्र बन गया है।पत्रकार संगठनों का कहना है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ दबाव और भेदभाव सहने के लिए नहीं बना है। अगर विभाग इसी तरह चलता रहा तो आंदोलन सड़कों से विधानसभा तक पहुँचेगा।

संगठन की बेचैनी

दूसरी ओर, सत्ता पक्ष भी अब अंदरखाने बेचैनी महसूस करने लगा है। सूत्रों के मुताबिक, पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने इस विवाद को गंभीरता से उठाया है। उनका मानना है कि लगातार बढ़ता विरोध सरकार और संगठन की साख पर असर डाल रहा है। एक नेता ने ऑफ़ द रिकॉर्ड कहा – ‘यह मसला प्रशासनिक से ज़्यादा राजनीतिक बन चुका है। अगर समय रहते सुधार नहीं हुआ तो नुकसान गहरा होगा।’

विपक्ष का हमला

विपक्षी दल कांग्रेस और अन्य इसे लोकतंत्र पर हमला बता रहे हैं। विपक्ष का कहना है कि सरकार की चुप्पी इस बात का सबूत है कि अंदर ही अंदर सब कुछ ठीक नहीं है। विपक्ष ने ऐलान किया है कि अगर पत्रकारों की आवाज़ दबाई गई तो वे भी पत्रकारों के आंदोलन के साथ खड़े होंगे।

भोपाल और दिल्ली तक गूँज

मामला अब प्रदेश की सीमा से निकलकर भोपाल और दिल्ली तक पहुँच गया है। पार्टी नेतृत्व तक नाराज़गी की रिपोर्ट भेजी जा चुकी है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह गूँज आगे चलकर पार्टी की रणनीति को भी प्रभावित कर सकती है।

बड़ा सवाल

-क्यों सरकार एक अधिकारी की कार्यशैली के कारण पत्रकारों और जनता दोनों का भरोसा खोने का जोखिम उठा रही है?

– जब सत्ता और संगठन दोनों ही असहज हैं तो चुप्पी क्यों?

– पत्रकारों की बढ़ते लामबंदी को अनदेखा करना क्या आने वाले समय में बड़ा संकट खड़ा करेगा?

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