
बहुत समय पहले, पांडव जंगल में रह रहे थे। वहां खाने-पीने की बहुत दिक्कत थी। कभी-कभी तो उनके पास खुद खाने के लिए भी कुछ नहीं होता था।
एक दिन बहुत सारे साधु-संत उनके पास आए और भोजन मांगने लगे। द्रौपदी (पांचों पांडवों की पत्नी) बहुत परेशान हो गईं, क्योंकि उनके पास खाने को कुछ भी नहीं था। दुखी होकर द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण को याद किया।
भगवान श्रीकृष्ण तुरंत वहां आ गए। उन्होंने द्रौपदी से पूछा,
“कुछ बचा है खाने के लिए?”
द्रौपदी ने दुखी होकर अपना खाली बर्तन दिखाया। लेकिन कृष्णजी ने देखा कि बर्तन में एक छोटा सा चावल का दाना चिपका हुआ था।
कृष्णजी ने वही चावल का दाना उठाया और खा लिया।
जैसे ही उन्होंने वह खाया, सारा ब्रह्मांड संतुष्ट हो गया! साधु-संतों का पेट भी भर गया, बिना कुछ खाए ही!
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को “अक्षय पात्र” दिया — एक ऐसा जादुई बर्तन जो कभी खाली नहीं होता था। अब पांडव कभी भूखे नहीं रहे।
इसी दिन को “अक्षय तृतीया” कहा जाता है — यानी ऐसा दिन जब शुभ काम का फल कभी खत्म नहीं होता।
इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जो भी शुभ कार्य किया जाता है — जैसे दान, व्रत, पूजा, हवन आदि — उसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता और वह जीवन में सदैव फलदायी रहता है।