बच्चे सहमे, सिस्टम चुप्पी साधे… संपादक की पत्नी इंसाफ़ की तलाश में

- पति का नाम एफआईआर में नहीं, फिर भी आधी रात को पुलिस घर में घुसी!
- पत्नी का सवाल; हम अपराधी क्यों? क्या कानून सिर्फ ताक़तवरों के लिए है?
- कलेक्टर, एसपी और गृह मंत्री से लगाई गुहार- ‘हमें सिर्फ सुरक्षा नहीं, इंसाफ़ चाहिए’
रायपुर। छत्तीसगढ़ की राजधानी में लोकतंत्र की आत्मा को झकझोर देने वाला दृश्य सामने आया है, जहाँ एक पत्रकार की पत्नी अपनी बेटियों के साथ न्याय की गुहार लेकर दर-दर भटक रही है। वह महिला जिसका पति एफआईआर में कहीं दर्ज नहीं, फिर भी आधी रात पुलिस ने उसके घर का ताला मशीन से तोड़ा, मंदिर में जूते पहनकर घुसी, और उसकी चूड़ियाँ तोड़ दीं। 10 अक्टूबर की रात का वो भयावह पल जब ‘बुलंद छत्तीसगढ़’ के संपादक मनोज पांडे के घर को एक छोटे-से युद्धक्षेत्र में बदल दिया गया। उस रात घर में केवल उनकी पत्नी सुनीता पांडे और तीन बेटियाँ थीं, जो दरवाज़े के टूटने की आवाज़ और ठंडी रात की वह कंपकंपाती याद आज भी नहीं भुला पाईं। अब वही सुनीता हर सरकारी दफ्तर के दरवाज़े पर न्याय की गुहार लेकर जा रही हैं। हाथ में थका हुआ ज्ञापन, और आँखों में एक सवाल लिए – ‘हमने कौन-सा अपराध किया था?
‘परिवार कहता है कि 10 अक्टूबर की रात पुलिस की कई गाड़ियाँ आईं, बिना कोई वारंट दिखाए मशीन से ताला तोड़ा गया और घर में घुसकर तलाशी ली गई। परिवार के बयानों के अनुसार वहां मौजूद कुछ पुलिसकर्मियों की वर्दी भी नहीं थी; महिला का घर होने के बावजूद महिला पुलिसकर्मी मौजूद नहीं थे। जब सुनीता ने सीसीटीवी की डीवीआर छूने पर विरोध किया तो उन्हें धक्का दिया गया, जिससे उनकी चूड़ियाँ टूट गईं और उनकी बेटियाँ सहम गईं।
इसी बीच क़ानूनी पेचराई में एक और आग लगी- दर्ज एफआईआर (क्राइम नंबर – 0165/2025) में कहीं भी उनके पति मनोज पांडे का नाम नहीं है। फिर भी परिवार पर जबरन कार्रवाई और परिवार के साथ किए गए व्यवहार ने स्थानीय मीडिया और पत्रकार संगठनों में गहरा आक्रोश भड़काया। संपादक मनोज पांडे के घर पर न होने के बावजूद उनके घर पर हुई यह कार्रवाई कई सवाल छोड़ गई। क्या यह शक्ति का प्रदर्शन था या किसी दबाव की प्रतिक्रिया?
गत दिवस राजधानी में बुलंद छत्तीसगढ़ की संपादकीय टीम, प्रभावित परिवार और साथी पत्रकारों ने कलेक्टर, एसपी व गृह मंत्री को एक संयुक्त ज्ञापन सौंपा। ज्ञापन में मांग की गई है – स्वतंत्र, उच्चस्तरीय और पारदर्शी जाँच; दोषियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई; तथा संपादक और उनके परिवार की सुरक्षा की तत्काल गारंटी। स्थानीय मीडिया मंचों ने भी मामले पर सख्त प्रतिक्रिया दी है और उच्च स्तरीय जांच की वकालत कर रहे हैं।
इस बारे में पीड़िता सुनीता पांडे का कहना है, “हमने कभी सोचा नहीं था कि हम अपने ही देश में न्याय के लिए भीख माँगेंगे। हमारे बच्चों की आँखों में आज भी भय है। हमें बताइए, हमारी ही तरह की माँ-बहनें किस भरोसे जीएँ?” उनकी आवाज़ में थकावट और असमंजस दोनों थे। भरोसे की जगह डर ने ले ली है।सुनीता के हाथों में रखे ज्ञापन के साथ राजधानी की खामोशी भी कुछ कह रही थी- कि कानून की राह तब तक निष्पक्ष नहीं होगी जब तक हर उस घर की छोटी-छोटी चीख़ों को सुना न जाए, जिनसे कलम ने सच लिखा है और जिनके बच्चों की दुनिया अभी भी डर के साए में है।
प्रशासन की जवाबदेही पर सवाल
कानूनविद् और वरिष्ठ पत्रकार इस घटना को ऐसे संकेत के रूप में देख रहे हैं जो प्रेस की स्वतंत्रता और प्रशासन की जवाबदेही दोनों पर सवाल उठाता है। वे कहते हैं कि यदि राज्य संस्थाएँ समय रहते जवाबदेही सुनिश्चित नहीं करतीं, तो यह घटना केवल एक परिवार का नहीं, पूरे समाज का आघात बन जाएगी।







